उस कमरे के एक कोने में वो गुमसुम बैठा करता था,
मुख में ना शब्द , इशारों में वो सबकुछ कहता रहता था।
थे जो सवाल उसके मन में वो सबके लिए अनायास थे,
उसके लिए जीवन उसका अब बस उनके जवाब ही थे।
ढूंढा उसने जो किताबों में, कई मंदिर और मजारों में,
जवाब मिला वो पागल है, है शंका है उसके खयालों में।
फिर वापस आकर कमरे में, अकेले में सन्नाटे से,
फिर वही प्रश्न पूछे उसने इस बार मगर, दीवारों से।
क्या ऐसा है कि हैं ही नहीं वो उत्तर इस संसार में ही,
फिर क्यों ना किताबों कि माने और पूछें उस भगवान से ही।
हां अभी जहां तुम बैठे हो, हां वहीं बनी एक सूली थी,
हां वहीं फिर से एक और जान घंटो तक उससे झूली थी।
स्वर्ग द्वार पे खड़े हुए, जब उसने अन्दर कदम ना रखा,
परमात्मा को भी उसके फिर परमार्थ भाव का मनन हुआ।
दे दो उत्तर उन प्रश्नों का मुझे वापस श्रृष्टि पर जाना है,
मेरे जैसे कमजोर पड़े नादानो को मुझे बचाना है।
उन प्रश्नों का उत्तर तो तू उस धरती पे ही छोड़ आया है
यहां तो ना हैं सवाल , ना प्रकृति ना माया है।
था जब मनुष्य का सृजन हुआ, अलगाव का ना जन्म हुआ,
फिर भी ये कुछ यूं जुदा हुए, खुद से ही यूं बेहूदा हुए,
की एक था वही ढूढ़ रहा, जो दूजे के पास था रखा हुआ
फिर भी उसको ना फर्क पड़ा, पहला मरा या है ज़िंदा,
स्वार्थ इनपे जब हावी हुआ, "बस मै" का भाव तब हावी हुआ।
तुम्ही देखो जब खुद तुमने अपना ही संघार किया,
इनकी दुनिया क्या रुकी, थमी ? क्या एक पहर भी किसीने उपवास किया?
दुनिया तो बस चलती गई, चलती गई बस चलती गई।
Penned by: Adity Shanker Pandey (guest writer)
Presented by: Darshatha
Image by: Anonymous source of a beautiful sunset.


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